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व्हाट्सअप साक्षात्कार: व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल , व्यंग्यकार के जबाब, विवेक रंजन श्रीवास्तव से बातचीत

Niharika Shrivastava by Niharika Shrivastava
October 3, 2020
in सम्पादकीय
व्हाट्सअप साक्षात्कार: व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल , व्यंग्यकार के जबाब, विवेक रंजन श्रीवास्तव से बातचीत
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इरादों की प्रत्यंचा से ऐसी टंकार निकले कि भय,निराशा,अंधेरा गली-गली दुबक जाए

वे गीता को जी रहे रचनाकार हैं … शिक्षाविद, साहित्यकार प्रो. विदग्ध

BY: विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ , शिला कुंज , नयागांव , जबलपुर , ४८२००८

व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप समूह पर श्री रणविजय राव अद्भुत साक्षात्कार का आयोजन प्रति सप्ताह कर रहे हैं . सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डा प्रेम जन्मेजय , श्री लालित्य ललित जी के मार्गदर्शन में बना व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप समूह १७५ व्यंग्यकारो का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्हाट्सअप समूह है . इसमें भारत सहित केनेडा , दुबई , अस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड आदि देशो के हिन्दी व्यंग्यकार सक्रिय भागीदारी के साथ जुड़े हुये हैं . व्यंग्यकार श्री रणविजय राव हर हफ्ते खुले मंच पर किसी एक व्यंग्यकार से सवाल पूचने के लिये समूह पर आव्हान करते हैं . व्यंग्यकारो से मिले सवालो के जबाब वह व्यंग्यकार देता है . इस तरह व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल , व्यंग्यकार के जबाब से गंभीर व्यंग्य विमर्श होता है . इस हफ्ते सवालों के कटघरे में मुझे खड़ा किया गया है . मेरे चयन के लिये श्री रणविजय राव का हृदय से आभार , इस बहाने मुझे भी कुछ सुनने , कहने , समझने का सुअवसर मिला . आइये बतायें क्या पूछ रहे हैं मुझसे मेरे वरिष्ठ , मित्र और कनिष्ठ व्यंग्यकार .

पहला सवाल है शशांक दुबे जी का …
अर्थशास्त्र में एक नियम है: “कई बार बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है”। क्या व्यंग्य में भी आजकल यही हो रहा है?               
मेरा जबाब ..
आदरणीय शशांक जी स्वयं बहुत सुलझे हुये , मददगार व्यंग्ययात्री हैं .  प्रायः अखबारो में जो संपादकीय मेल लिखा होता है उस पर इतनी अधिक मेल आती है कि संबंधित स्तंभ प्रभारी वह मेल देखता ही नही है , या उस भीड़ में आपकी मेल गुम होकर रह जाती है . मुझे स्मरण है कि कभी मैने शशांक जी से किसी अखबार की वह आई दी मांगी थी जिस पर व्यंग्य भेजने से स्तंभ प्रभारी उसे देख ले , तो उन्होने स्वस्फूर्त मुझे अन्य कई आईडी भेज दी थीं . अस्तु शशांक जी के सवाल पर आता हूं . मैने बचपन में एक कविता लिखी थी जो संभवतः धर्मयुग में बाल स्तंभ में छपी भी थी ” बिल्ली बोली म्यांऊ म्यांऊ , मुझको भूख लगी है नानी दे दो दूध मलाई खाऊं,….   अब तो जिसका बहुमत है चलता है उसका ही शासन . चूहे राज कर रहे हैं … बिल्ली के पास महज एक वोट है , चूहे संख्याबल में ज्यादा हैं . व्यंग्य ही क्या देश , दुनियां , समाज हर जगह जो मूल्यों में पतन दृष्टिगोचर हो रहा है उसका कारण यही है कि बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर रही है .
अगला सवाल वरिष्ठ व्यंग्यकार आशीष दशोत्तर जी का है .
 व्यंग्य नाटकों के अभाव और इस क्षेत्र की संभावना पर आप क्या सोचते हैं?
सवाल मेरी प्रोफाईल के अनुरूप पूछा है आषीश जी ने . मेरी व्यंग्य की ५ किताबों के साथ ही नाटक की ३ पुस्तकें छप चुकी है . मेरे लिखित कुछ नाटक डी पी एस व अन्य स्कूलो में खेले गये हैं . मुझे म प्र साहित्य अकादमी से मेरे नाटक संग्रह हिंदोस्तां हमारा के लिये ३१००० रु का हरि कृष्ण प्रेमी सम्मान मिल चुका है . अस्तु आत्म प्रवंचना केवल परिचय के लिये .
मेरा जबाब .. मेरा मानना है कि नुक्कड़ नाटक इन दिनो बहुत लोकप्रिय विधा है . और व्यंग्य नाटको की व्यापक संभावना इसी क्षेत्र में अधिक दिखती है . लेखको का नाटक लेखन के प्रति लगाव दर्शको के प्रतिसाद पर निर्भर होता है . जबलपुर में हमारे विद्युत मण्डल परिसर में भव्य तरंग प्रेक्षागृह है , जिसमें प्रति वर्ष न्यूनतम २ राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह होते हैं , सीजन टिकिट मिलना कठिन होता है . बंगाल , महाराष्ट्र , दिल्ली में भी नाटक के प्रति चेतना अपेक्षाकृत अधिक है . यह जरूर है कि यह क्षेत्र उपेक्षित है , पर व्यापक संभावनायें भी हैं .

अगला सवाल वरिष्ठ व्यंग्यकार , संपादक ,समीक्षक बेहद अच्छे इंसान दिलीप तेतरवे जी का रांची से है .
 विवेक भाई, क्या आपको नहीं लगता कि व्यंग्य के टार्गेट्स पूरे भारत में कोरोना की तरह पसरे हुए हैं ? 
मेरा जबाब …
दिलीप जी से मेरी भेंट गहमर में एक साहित्यिक समारोह में हुई थी . स्मरण हो आया , हमने आजू बाजू के पलंग पर लेटे हुये साहित्यिक चर्चायें की हैं . सर कोरोना वायरस एक फेमली है , जो म्यूटेशन करके तरह तरह के रूपों में हमें परेशान करता रहा है , पिछली सदी में १९२० का स्पेनिश फ्लू भी इसी की देन था . मैं आपसे शतप्रतिशत सहमत हूं , मानवीय प्रवृत्तियां स्वार्थ के चलते रूप बदल बदल कर व्याप्त हैं , भारत ही क्या विश्व में और यही तो व्यंग्य का टार्गेट हैं .

अगला सवाल  व्यंग्य: विवेकरंजन जी, आप राजनीतिक व्यंग्य के संदर्भ में क्या विचार रखते हैं?  पूछ रही हैं व्यंग्य के क्षेत्र में तेजी से उभरती हुई युवा व्यंग्य यात्री अपर्णा जी
मेरा जबाब ..
अपर्णा जी , राजनीती जीवन के हर क्षेत्र में हावी है . हम स्वयं चार नमूनो में से किसी को स्वयं अपने ऊपर हुक्म गांठने के लिये चुनने की व्यवस्था के हिस्से हैं . असीमित अधिकारो से राजनेता का बौराना अवश्य संभावी है , यहीं विसंगतियो का जन्म होता , और व्यंग्य का प्रतिवाद भी उपजने को विवश होता है . अखबार जो इन दिनो संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य के पोषक बने हुये हैं , समसामयिक राजनैतिक व्यंग्य को तरजीह देते हैं . और देखादेखी व्यंग्यकार राजनीतिक व्यंग्य की ओर आकर्षित होता है . मैं राजनैतिक व्यंग्यो में भी मर्यादा , इशारो और सीधे नाम न लिये जाने का पक्षधर हूं .

प्रभाशंकर जी उपाध्याय व्यंग्य: आपका एक व्यंग्य संग्रह है —‘कौवा कान ले गया’।  मुझे पता नहीं है कि इस पुस्तक में इस विषय पर कोई पाठ है अथवा नहीं किन्तु हालिया माहौल में यह कहावत पुरजोर चरितार्थ हो रही है। सोशल मीडिया के जरिए अफवाहें प्रसारित की जा रही है वीडियो आनन फानन वाइरल हो रहे हैं। इन्हें पढ़ने और देखने वाले अपने कानों की सलामती का परीक्षण किए बगैर कौवे के पीछे दौड़ पड़ते हैं। व्यंग्य लेखन के तौर पर इसमें  हमारी निरोधात्मक भूमिका  क्या हो? 
मेरा जबाब …
स्वयं विविध विषयो पर कलम चलाने वाले वरिष्ठ जानेमाने व्यंग्यकार आदरणीय उपाध्याय जी का यह सवाल मुझे बहुत पसंद आया . बिल्कुल सर, कौआ कान ले गया मेरा संग्रह था . जिसकी भूमिका वरिष्ठ व्यंग्य पुरोधा हरि जोशी जी ने लिखी थी . उसमें कौवा कान ले गया शीर्षक व्यंग्य के आधार पर ही संग्रह का नाम रखा था .अफवाहो के बाजार को दंगाई हमेशा से अपने हित में बदलते रहे हैं , अब तकनीक ने यह आसान कर दिया है , पर अब तकनीक ही उन्हें बेनकाब करने के काम भी आ रही है . व्यंग्यकार की सब सुनने लगें तो फिर बात ही क्या है , पर फिर भी हमें आशा वान बने रहकर सा हित लेखन करते रहना होगा . निराश होकर कलम डालना हल नही है . लोगों को उनके मफलर में छिपे कान का अहसास करवाने के लिये पुरजोर लेखन जारी रहेगा .

प्रश्न:व्यंग्य के अल्पसंख्यक जानकर कहते हैं कि व्यंग्य करुणा प्रधान होने चाहिए जबकि बहुसंख्यक पाठक चाहते हैं कि व्यंग्य हास्यप्रधान होने चाहिए|ऐसे में एक व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में किस तत्व को प्रमुख हथियार बनाये?- मुकेश राठौर
मेरा जबाब …
यह व्यंग्यकार की व्यक्तिगत रुचि , विषय का चयन , और लेखन के उद्देश्य पर निर्भर है . हास्य प्रधान रचना करना भी सबके बस की बात नही होती . कई तो अमिधा से ही नही निकल पाते , व्यंजना और लक्षणा का समुचित उपयोग ही व्यंग्य कौशल है . करुणा व्यंग्य को हथियार बना कर प्रहार करने हेतु प्रेरित करती ही है .

प्रश्न..  आप अपने को कितने प्रतिशत कवि और कितने प्रतिशत व्यंग्यकार मानते हैं ? — लालित्य ललित
मेरा जबाब …
मेरा मानना है कि हर रचनाकार पहले कवि ही होता है , प्रत्यक्ष न भी सही , भावना से तो कवि हुये बिना विसंगतियां नजर ही नही आती . मेरा पहला कविता संग्रह १९९२ में आक्रोश आया था , जो तारसप्तक अर्ढ़शती समारोह में विमोचित हुआ था , भोपाल में .आज भी पुरानी फिल्में देखते हुये मेरे आंसू निकल आते हैं ,  मतलब मैं तो शतप्रतिशत कवि हुआ . ये और बात है कि जब मैं व्यंग्यकार होता हूं तो शत प्रतिशत व्यंग्यकार ही होता हूं .

प्रश्न ..क्या आप व्यंग्य को विधा मानते हैं? व्यंग्य विधा नहीं है, तो क्या है? क्योंकि वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री डा. अशोक चक्रधर जी ने कहा कि व्यंग्य विधा नहीं है।
 *-टीकाराम साहू ‘आजाद’, नागपुर
प्रश्न ..आदरणीय, 131 व्यंग्यकारों के संचयन के लोकार्पण समारोह में आदरणीय पद्मश्री अशोक चक्रधर ने व्यंग्य को विधा नहीं, किसी भी विधा में प्रवेश की एक सुविधा निरूपित किया है। और वैसे भी व्यंग्य को एक विधा के रूप में स्वीकारने में कई विद्वानों में हिचकिचाहट देखी गयी है। आप क्या कहते हैं?  — के पी सक्सेना ‘दूसरे’

मेरा जबाब … किसी भी व्यक्तव्य को संदर्भ सहित ही समझना जरूरी है , डा अशोक चक्रधर ने कल जो कहा उसका पूरा संदर्भ समझें तो उन्होंने अलंकारिक प्रस्तुति के लिये कहा कि व्यंग्य सुविधा है , पर उसका मूल मर्म यह नही था कि व्यंग्य अभिव्यक्ति की विधा ही नही है . मेरा मानना है कि व्यंग्य अब विधा के रूप में सुस्थापित है . उनके कहने का जो आशय मैने ग्रहण किया वह यह कि उन्होने बिल्कुल सही कहा था कि किसी भी विधा में व्यंग्य का प्रयोग उस विधा को और भी मुखर , व अभिव्यक्ति हेतु सहज बना देता है . फिर बहस तो हर विधा को लेकर की जा सकती है , ललित निबंध ही ले लीजीये , जिसे विद्वान स्वतंत्र विधा नही मानते , पर यह हम व्यंग्यकारो का दायित्व है कि हम इतना अच्छा व भरपूर लिखें कि अगली बार अशोक जी कहें कि व्यंग्य उनकी समझ में स्वतंत्र विधा है .

प्रश्न ..विवेकरंजन जी आप बहु विधा में लिख रहें हैं,पर वर्तमान समय में व्यंग्य लेखन प्राथमिकता में दिख रहा है। लेखन में व्यंग्य की  प्राथमिकता (विषय) बदल गई है। आप की दृष्टि में व्यंग्य लेखन में क्या नहीं होना चाहिए ?               — रमेश सैनी
मेरा जबाब … रमेश सैनी जी मेरे अभिन्न मित्र व बड़े भाई सृदश हैं , व्यंगम के अंतर्गत हम साझा अनेक आयोजनो में व्यंग्यपाठ कर चुके हैं . व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर दूरदर्शन भोपाल में एक चर्चा में भी वे मेरे साथ थे . मैं हिन्दी में वैज्ञानिक विषयो पर सतत लिखता रहा हूं , बिजली का बदलता परिदृश्य मेरी एक पुस्तक है , विज्ञान कथायें मैने लिखी हैं , कवितायें तो हैं ही , समसामयिक लेखों के लिये मुझे रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार मिल चुका है ,पर मेरी मूल धारा में व्यंग्य १९८१ से है . व्यंग्य लेखन में क्या नही होना चाहिये इस सवाल का सीधा सा उत्तर है कि  व्यक्तिगत कटाक्ष नही होना चाहिये , इसकी अपेक्षा व्यक्ति की गलत प्रवृति पर मर्यादित अपरोक्ष प्रहार व्यंग्य का विषय बनाया जा सकता है . व्यंग्य में सकारात्मकता को समर्थन की संभावना ढ़ूंढ़ना जरूरी लगता है . जैसे मैं एक प्रयोगधर्मी व्यंग्य लेख लिख रहा हूं लाकडाउन में सोनू सूद के द्वारा किये गये जन हितैषी कार्यो के समर्थन में .

प्रश्न: व्यंग्य विधा नहीं अपितु माध्यम है सभी विधाओं में अपनी सशक्त अभिव्यक्ति का .. क्या व्यंग्य  गद्य ही नहीं अपितु  पद्य विधा में भी मान्य है ?— शशि पुरवार
मेरा जबाब … शशि जी आपके सवाल में स्वयं आपने उत्तर भी दे रखा है . पद्य में भी व्यंग्य मान्य है ही . मंचो पर तो इसका नगदीकरण तेजी से हो रहा है .

प्रश्न: आप परसाई जी की नगरी से आते हैं। उन तक कोई भी पहुंच नहीं सकता। इस दौर के व्यंग्यकारों में किसे आप उनके सबसे नजदीक पाते हैं ?– राजशेखर चौबे
मेरा जबाब …
राजशेखर जी , आप को मैं बहुत पसंद करता हूं और आपके व्यंग्य चाव से पढ़ा करता हूं लेते लेटे , क्योकि आप व्यंग्य को समर्पित संपूर्ण संस्थान ही चला रहे हैं , ऐसा क्यो मानना कि कोई परसाई जी तक नही पहुंच सकता , जिस दिन कोई वह ऊंचाई छू लेगा परसाई जी की आत्मा को ही सर्वाधिक सुखानुभुति होगी . एक नही अनेक  अपनी अपनी तरह से व्यंग्यार्थी बने हुये हैं , पुस्तकें आ रही हैं , पत्रिकायें आ रही हैं , लिखा जा रहा है , पढ़ा जा रहा है शोध हो रहे हैं , नये माध्यमो की पहुंच वैश्विक है , परसाई जी की त्वरित पहुंच वैसी नही थी जैसी आज संसाधनो की मदद से हमारी है . आवश्यकता है कि गुणवत्ता बने .नवाचार हो . मेरे एक व्यंग्य का हिस्सा है जिसमें मैंने लिखा हे कि जल्दी ही साफ्टवेयर से व्यंग्य लिखे जायेंगे . यह बिल्कुल संभव भी है . १९८६ के आस पास मैने लिखा था ” ऐसे तय करेगा शादियां कम्प्यूटर ” आज हम देख रहे हैं कि ढ़ेरो मेट्रोमोनियल साइट्स सफलता से काम कर रही हैं . अपनी सेवानिवृति के बाद आप सब के सहयोग से मेरा मन है कि साफ्टवेयर जनित व्यंग्य पर कुछ ठोस काम कर सकूं . आप विषय डालें ,शब्द सीमा डालें लेखकीय भावना शून्य हो सकता है , पर कम्प्यूटर जनित व्यंग्य तो बन सकता है .

प्रश्न: क्या एक कवि बहुत बेहतरीन व्यंग्यकार हो सकता है? और हास्य और मार्मिक व्यंग्य के अलावा भी किस किस भाव में व्यंग्य लिखे जा सकते हैं?—- सुष राजनिधि
मेरा जबाब ..
बिल्कुल हो सकता है , भावना तो हर रचनाकार की शक्ति होती है , और कवि को भाव प्रवणता के लिये ही पहचाना जाता है . प्रयोगधर्मिता हर भाव में व्यंग्य लिखवा सकती है .

प्रश्न :विवेकरंजन जी,आप व्यंग्य लेखन के अलावा  नाटक में भी सक्रिय हैं। नाटकों में व्यंग्य के प्रयोग का प्रचलन काफी पुराना है। शरद जी, प्रेम जी और भी कई व्यंग्यकारों ने नाटक लिखे और बहुत सारे व्यंग्यकारों की रचनाओं के नाट्य रूपांतरण भी हुए। श्रीलाल जी का राग दरबारी देश भर में खूब खेला गया फिर भी हिंदी में नाटकों की भारी कमी है। क्या आपको नहीं लगता कि देश भर के व्यंग्यकारों को यह कमी पूरी करने के लिए कमर कसना चाहिए ?— प्रमोद ताम्बट,भोपाल
मेरा जबाब …
बहुत अच्छा संदर्भ उठाया है प्रमोद जी आपने . हिन्दी नाटको के क्षेत्र में बहुत काम होना चाहिये . नाटक प्रभावी दृश्य श्रव्य माध्यम है . पिताश्री बताते हैं कि जब वे छोटे थे तो  नाटक मंडलियां हुआ करती थीं जो सरकस की तरह शहरों में घूम घूम कर नाटक , प्रहसन प्रस्तुत किया करती थीं . जल नाद मेरा एक लम्बा नाटक है जिसके लिये प्रकाशक की तलाश है . निश्चित ही व्यंग्यकार मित्र नाटक लेखन में काम कर सकते हैं , पर सप्लाई का सारा गणित मांग का है .

प्रश्न : व्यंग्य रचना की पहचान करने के लिए कोई रेटिंग स्केल बनाना हो तो आप कैसे बनायेंगे ? — डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
मेरा जबाब —
इसके मानक ढेर से है । जैसे विज्ञान में  फंक्शन आफ लिखकर ब्रेकेट में अनेक पैरामीटर लिख सकते हैं , उसी तरह व्यंग्य के मानकों में  अपरोक्ष प्रहार , हास्य , करुणा , पंच , भाषा , शैली , विषय प्रवर्तन , उद्देश्य , निचोड़ , बहुत कुछ हो सकता है जिस पर स्केलिंग की जा सकती है । मन्तव्य यह कि मजा भी आये , शिक्षा भी मिले  , जिस पर प्रहार हो वह तिलमिलाए भी तो बढिया व्यंग्य कहा जा सकता है । सहमत होंगे  आप ?

प्रश्न : व्यंग्य विधा को स्थापित करने हेतु हमें अपने नाम के पूर्व व्यंग्यकार जोड़ना क्या सही कदम होगा ? आपके पिता एक अच्छे कवि हैं आप पिता से अलग राह पर चल रहें हैं l  आखिर जीवन में साहित्यिक क्षेत्र में क्या देखना चाहते हैं और क्या स्थापित करना चाहते हैं ? व्यंग्य की नयी पौध को व्यंग्य के मूल तत्वों को समझने और जानने हेतु व्यंग्य सिद्धांत के तौर पर किन पुस्तकों को पढ़ना चाहिए ? — परवेश जैन
मेरा जबाब —
परवेश जी आप स्वतः व्यंग्य और कविता को नये मानकों व नये माध्यमों से जोड रहे सक्रिय रचनाकार हैं . व्यंग्य अड्डा को विदेशों से भी हिट्स मिल रहे हैं . मेरे पूज्य पिताश्री ने संस्कृत के महाकाव्यों के हिन्दी श्लोकशः पद्यानुवाद किये हैं जिनमें भगवत गीता , रघुवंश आदि शामिल हैं . वे छंद बद्ध राष्ट्रीय भाव की रचनाओ के लिये जाने जाते हैं . ९४ वर्ष की आयु में भी सतत लिखते रहते हैं . मैं उनके लेखन से प्रोत्साहित तो हुआ पर मेरी रुचि व्यंग्य में हुई , मेरी बिटियों की भी किताबें आ गईं हैं पर उनकी व्यंग्य लेखन में रुचि नही . दरअसल लेखन अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत कला व अभिरुचि का विषय होता है . जैसा मैने राजशेखर जी के सवाल के जबाब में लिखा व्यंग्य में कुछ तकनीकी नवाचार कर पाऊ तो मजा आ जाये , पर यह अभी विचार मात्र है . मैंने अपने शालेय जीवन में जिला पुस्तकालय मण्डला की ढ़ेर सारी साहित्यिक किताबें पढ़ी और नोट्स बनाये थे . आज भी कुछ न कुछ पढ़े बिना सोता नही हूं  . किससे क्या अंतर्मन में समा जाता है जो जाने कब पुनर्प्रस्फुटित होता है , कोई बता नही सकता . इसलिये नई पौध को  मेरा तो यही सुझाव है कि पढ़ने की आदत डालें , धीरे धीरे आप स्वयं समझ जाते हैं कि क्या अलट पलट कर रख देना है और क्या गहनता से पढ़ना है . क्या संदर्भ है और क्या वन टाइमर . हर रचनाकार स्वयं अपने सिद्धांत गढ़ता है , यही तो मौलिकता है . नई पीढ़ी छपना तो चाहती है , पर स्वयं पढ़ना नही चाहती . इससे वैचारिक परिपक्वता का अभाव दिखता है . जब १०० लेख पढ़ें तब एक लिखें , देखिये फिर कैसे आप हाथों हाथ लिये जाते हैं . गूगल त्वरित जानकारी तो दे सकता है , ज्ञान नही , वह मौलिक होता है , नई पीढ़ी में मैं इसी मौलिकता को देखना चाहता हूं .

 प्रश्न .. आपने व्यंग्य के विषय चयन पर भी व्यंग्य लिखा है।यह बताएँ आप व्यंग्य लेखन के लिए विषय कैसे चुनते हैं। विषय ,व्यंग्य को चुनता है,या,व्यंग्य विषय को? कितनी सिटिंग में परफेक्शन आता है? क्या व्यक्तिगत मतभेद के आधार पर आपके व्यंग्य में पात्र गढ़े हैं? … अलका अग्रवाल सिगतिया
मेरा जबाब …
अलका जी , आप बहुविधाओ में निपुण हैं . आप में उत्सुकता और तेजी का समिश्रण परिलक्षित होता है . मैं सायास बहुत कम लिखता हूं , कोई विषय भीतर ही भीतर पकता रहता है और कभी सुबह सबेरे अभिव्यक्त हो लेता है तो मन को सुकून मिल जाता है . विषय और व्यंग्य दोनो एक दूसरे के अनुपूरक हैं , विषय उद्देश्य है और व्यंग्य माध्यम . मुझे लगता है कि कोई रचना कभी भी फुल एण्ड फाइनल परफेक्ट हो ही नही सकती , खुद के लिखे को जब भी दोबारा पढ़ो कुछ न कुछ तो सुधार हो ही जाता है .  चित्र का कैनवास बड़ा होना चाहिये , व्यक्ति गत मतभेद के छोटे से टुकड़े पर क्या कालिख पोतनी .  

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