चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव
कविता
कवियत्री … अमनदीप गुजराल
बोधि प्रकाशन , जयपुर , १५० रु , १०० पृष्ठ
जब किसी अपेक्षाकृत नई लेखिका की किताब आने से पहले ही उसकी कविताओ का अनुवाद ओड़िया और मराठी में हो चुका हो , प्रस्तावना में पढ़ने मिले कि ये कवितायें खुद के बूते लड़ी जाने वाली लड़ाई के पक्ष में खड़ी मिलती हैं , आत्मकथ्य में रचनाकार यह लिखे कि ” मेरे लिये , लिखना खुद को खोजना है ” तो किताब पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है . मैने अमनदीप गुजराल विम्मी की “ठहरना जरूरी है प्रेम में ” पूरी किताब आद्योपांत पढ़ी हैं .

बातचीत करती सरल भाषा में , स्त्री विमर्श की ५१ ये अकवितायें , उनके अनुभवों की भावाभिव्यक्ति का सशक्त प्रदर्शन करती हैं .
पन्ने अलटते पलटते अनायास अटक जायेंगे पाठक जब पढ़ेंगे
” देखा है कई बार , छिपाते हुये सिलवटें नव वधु को , कभी चादर तो कभी चेहरे की “
या
” पुल का होना आवागमन का जरिया हो सकता है , पर इस बात की तसल्ली नहीं कि वह जोड़े रखेगा दोनो किनारों पर बसे लोगों के मन “
अथवा
” तुम्हारे दिये हर आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने चुना मौन “
और
” खालीपन सिर्फ रिक्त होने से नहीं होता ये होता है लबालब भरे होने के बाद भी “
माँ का बिछोह किसी भी संवेदनशील मन को अंतस तक झंकृत कर देता है , विम्मी जी की कई कई रचनाओ में यह कसक परिलक्षित मिलती है …
” जो चले जाते हैं वो कहीं नही जाते , ठहरे रहते हैं आस पास … सितारे बन टंक जाते हैं आसमान पर , हर रात उग आते हैं ध्रुव तारा बन “
अथवा …
” मेरे कपड़ो मेंसबसे सुंदर वो रहे जो माँ की साड़ियों को काट कर माँ के हाथों से बनाए गये “
और एक अन्य कविता से ..
” तुम कहती हो मुझे फैली हुई चींजें , बिखरा हुआ कमरा पसन्द है , तुम नही जानती मम्मा , जीनियस होते हैं ऐसे लोग “
“ठहरना जरूरी है प्रेम में” की सभी कविताओ में बिल्कुल सही शब्द पर गल्प की पंक्ति तोड़कर कविताओ की बुनावट की गई है . कम से कम शब्दों में भाव प्रवण रोजमर्रा में सबके मन की बातें हैं . इस संग्रह के जरिये अमनदीप गुजराल संभावनाओ से भरी हुई रचनाकार के रूप में स्थापित करती युवा कवियत्री के रूप में पहचान बनाने में सफल हुई हैं. भविष्य में वे विविध अन्य विषयों पर बेहतर शैली में और भी लिखें यह शुभकामनायें हैं . मैं इस संग्रह को पाठको को जरूर पढ़ने , मनन करने के लिये रिकमेंड करता हूं . रेटिंग …पैसा वसूल , दस में से साढ़े आठ.